सम्पादकीय

सम्पादक की कलम- सरकारी योजनाएं और हज्ज़ाम की दुकान

डॉ. इन्द्रेश मिश्र 

नुक्कड़ पर हज्ज़ाम की दुकान पर बैठा ही था. कि कुर्सी पर बैठे एक सज्जन अपनी शेविंग- बेविंग करा चुके थे, अपनी तशरीफ उठाकर एक किनारे खड़े होते हुए जेब से पैसे निकालकर अपनी हजामत का हिसाब-किताब चुकता कर दिए.

यहां तक तो ठीक मैं मौन बैठे बैठे सब देख रहा था,
अब जरा उन दोनों का आपस में वार्तालाप पढ़िए और सरकार कि जनकल्याणकारी योजनाओं और नीतियों के बारे में सोचकर अगर टैक्स दे रहे है तो अपने को जरूर कोसते रहिए-

मौज तो तब आई जब हज्ज़ाम महोदय ने उन सज्जन से कहा कि-

=”का हो  (शायद नाम मxहर या कुछ ऐसा ही था) लोग झोला लेकर बाजार जाते हैं और तुम बोरा, इसी मा सब्जी उ लई आए?

#मxहर बोले- घर से चावल लिए गए रहई. उधर से इस मा सब्जी लिए आये.
#हज्ज़ाम- का कोटा से इत्ते जादा चावल मिलि गए.
#महरू- हाँ, का करे सर सुरी सर, कार ने यहि महिना
36 किलो दिए
#हज्ज़ाम- काहे कई युनिट है.
#महरू- 6
#हज्ज़ाम- 18 किलो त भये.
#महरू- सर, कार पाxx, गल हई, 2 किलो महिना कु खर्चा, यहि  महिना म 2-2 बार 18-18 किलो मिलो चावल और 12-12 किलो गेहूं.

हज्ज़ाम बोलते ही रह गए कि यहां त इत्ताउ कम परि जात है,

और हम सोचते हुए- सिर खुजाते हुए कि मध्यमवर्गीय के पास न झोला बचा और बोरा, बची है तो बस पालीथीन उस पर भी नीति नियन्ताओ का तथाकथित नियंत्रण, हजामत के लिए कुर्सी पर धसक के बैठ गये.

उधर महरू दुकान के बाहर खड़ी चमचमाती फटफटिया पर सेल्फ स्टार्ट मारकर फुर्र हो गए .
छोड़ गए तो गरियाते हुए नीतियों-योजनाओं के गुबार पर प्रश्नचिन्ह?

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