बहराइच (रोहित मौर्या), भारत-नेपाल सीमा पर बहने वाली घाघरा नदी, जिसे प्राचीन काल से सरयू के नाम से जाना जाता है, आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी हजारों साल पहले थी। रामायण के अनुसार, यही वह सरयू है जिसके तट पर अयोध्या बसी और जहां भगवान राम ने जल समाधि ली। पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में इसका बार-बार उल्लेख मिलता है।
इतिहास गवाह है कि घाघरा नदी ने उत्तर प्रदेश और बिहार की धरती को उपजाऊ बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। बौद्ध और जैन काल से लेकर ब्रिटिश शासन तक, यह नदी व्यापार और खेती की जीवनरेखा रही। लेकिन समय बदला और अब यही नदी अपने कटान की वजह से लोगों की परेशानियों का कारण बन गई है।
कटान से तबाही
बरसात का मौसम आते ही घाघरा नदी रौद्र रूप धारण कर लेती है। नेपाल से आने वाले तेज बहाव और रेतीली मिट्टी की वजह से नदी अपनी धारा बार-बार बदलती है। नतीजा यह होता है कि किनारे बसे गाँव और उपजाऊ खेत नदी में समा जाते हैं।
बहराइच, गोंडा, बाराबंकी और बलिया जैसे ज़िलों में हर साल हजारों बीघा ज़मीन कटकर नदी में चली जाती है। किसानों की गन्ना, धान और गेहूँ की फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कई परिवारों को अपने घर छोड़कर सुरक्षित जगहों पर पलायन करना पड़ता है।
किसानों की पीड़ा
स्थानीय किसान रामबली (परिवर्तित नाम) बताते हैं –
“हमारी तीन बीघा ज़मीन थी, सब नदी में चली गई। अब मजदूरी करके घर चला रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई। हर साल यही डर रहता है कि कहीं घर भी नदी में न समा जाए।”
विशेषज्ञों की राय
विशेषज्ञ मानते हैं कि घाघरा नदी का कटान रोकना आसान नहीं है। रेतीली मिट्टी, तेज बहाव और बार-बार धारा बदलने की प्रवृत्ति इस समस्या को गंभीर बना देती है।
कई जगह तटबंध बनाए गए हैं, लेकिन कई बार पानी का दबाव इतना ज्यादा होता है कि वे भी टूट जाते हैं या नदी दूसरी तरफ से कटान शुरू कर देती है।
सरकार से उम्मीद
ग्रामीणों की मांग है कि कटान प्रभावित क्षेत्रों में स्थायी तटबंध, पुनर्वास योजनाएँ और आर्थिक सहायता दी जाए।
लोग कहते हैं कि घाघरा माँ उपजाऊ मिट्टी भी देती है और जमीन छीन भी लेती है, लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार इसे लेकर ठोस कदम उठाए


