हिन्दू ,मुस्लिम,सिख, ईसाई आपस में है सब भाई-भाई। यह कागजों पर लिखा है, किताबों से हर आम और खास शख़्स ने पढ़ा है। लेकिन क्या वर्तमान परिवेश में ऐसा है, आज के समय में इसका उत्तर भी हर भारतीय के पास होगा? भारत में मुख्य धर्मो में हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख धर्म है। हिन्दू धर्म के बाद दूसरे स्थान पर इस्लाम धर्म है। भारतीय राजनीति में वोट का खेल बहुत ही निराला है, समझने की कोशिश करते है-
बड़ा ही रोचक तथ्य है, स्वतन्त्रता बाद 1951 की जनगणना के आधार पर भारत में मुसलमानों की जनसंख्या मात्र 3.4 करोड़ हुआ करती थी।वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार 17.2 करोड़ पंहुच गई जो कि देश की जनसंख्या का 14.2% है। अमेरिका की शोध संस्था प्यू रिसर्च के 2020 के अनुमान के मुताबिक भारत में मुस्लिमों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। जहां इस लिस्ट में पहले नंबर पर इंडोनेशिया है वहीं तीसरे पर पाकिस्तान है।
भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कुछ समय पहले दिया गया ये कथन सही है कि भारत में मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन भारत की समूची जनसंख्या बढ़ रही है। जिसमें दूसरे धर्म भी शामिल है। 2019 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार प्रमुख धार्मिक समूहों में मुस्लिम आबादी की प्रजनन दर सबसे अधिक है, जो कि बच्चे पैदा करने वाली उम्र की प्रति महिला बच्चे जनने की औसत संख्या है। लेकिन आकड़ों के अनुसार बीते दो दशकों में इस दर में भारी गिरावट आई है। वास्तव में, प्रति महिला जन्मदर की गिरावट मुसलमानों में हिंदुओं के मुक़ाबले अधिक है। ये 1992 में 4.4 जन्म थी जो 2019 में गिरकर 2.4 हो गई।
भाजपा जैसी हिंदुत्व की पैरोकार राजनैतिक पार्टी भी अब मुस्लिम धर्म में मौजूद पिछड़े, गरीबी में जीवन यापन कर रहे मुसलमानों में विकास पहुचांने को लक्ष्य मानकर 2024 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली का किला फतेह करने का मन बना चुकी है। यह बात पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मध्यप्रदेश की एक जनसभा मे दिये गये भाषण से साबित भी हो चुकी है।
ह्यूमन राइट्स वॉच नें 2023 में ताजा रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि वर्तमान सरकार ने ‘धार्मिक, अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों के साथ व्यवस्थित भेदभाव करना जारी रखा है।’
कहना नाकाफी नही है कि वर्तमान समय में मुसलमान, पिछले इस्लामिक इतिहास को दखते हुए भारत में सबसे कठिन दौर से गुजर रहे है। भारतीय मुसलमान नफ़रत, हिंसा, उत्पीड़न और अत्याचारों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से झेल रहे है। इस उत्पीड़न से निजात मिलेगी कैसे? क्या इसका उत्तर सत्ताधारी दल के पास होगा?
भारत में केंद्रीय सत्ता के सशक्त दो मुख्य राजनीतिक दलों में कांग्रेस और भाजपा ही है। जहां 1947 से ही कांग्रेस हिन्दु-मुस्लिमों को साथ लेकर चलने की नीति रही है। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री नेहरू का मानना था कि “शांतिपूर्ण समाज के निर्माण और विभाजन के बाद हुई दूसरी त्रासदी से बचने के लिए धर्मनिरपेक्षता आवश्यक है; उन्होंने भारत को धार्मिक आधार पर विभाजित करने की कोशिश करने वालों, विशेषकर हिंदू समूहों को देश के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा था।” इस नीति के तहत ही कांग्रेस लगभग 50 से अधिक वर्षों तक केंद्र व राज्यों की सत्ता पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आसीन रही। इस नीति का फायदा उस दौर के कट्टरपंथी मुस्लिमों ने बहुत उठाया। ऐसे तथाकथित कट्टर मुस्लिमों ने हिन्दुओं को नीचा दिखाने में कोई कोर कसर न छोड़ी।
आज केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी हमेशा से ही हिंदुत्व को लेकर मुखर रही। अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस से हुई शुरुआत, प्रतिक्रिया स्वरूप 2002 में गोधरा, 2013 के मुजफ्फरनगर, 2019 में दिल्ली में हुये दंगो में मुस्लिमों ने खुद को असहाय और असुरक्षित पाया। मुस्लिमों के लिए वर्ष 2022 अधिक दमनकारी रूप में देखने को मिला। जब कर्नाटक में हिजाब पर पाबंदी लागू की गई थी। रमज़ान के पवित्र महीने के पहले दिन ही दिल्ली में महापंचायत का आयोजन किया गया था। उसके बाद मध्य प्रदेश,राजस्थान,उत्तराखंड और नई दिल्ली सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा।
आहत होकर राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भारत को मुस्लिमों के लिए असुरक्षित बताते हुए कह दिया था कि, ‘‘हमने अपने-अपने बेटा-बेटी को कहा कि उधर (विदेश) ही नौकरी कर लो, अगर नागरिकता भी मिले तो ले लेना.. अब भारत में माहौल नहीं रह गया है…।’’
जबकि हिंदुओं नें मंहगाई, बेरोजगारी को किनारे रखकर भारतीय जनता पार्टी में अपनें हितों और अस्मिता को सुरक्षित पाया।
भाजपा ने हिन्दुओं में कट्टरता को मजबूत कर देश की केंद्रीय और विभिन्न राज्यों की सत्ता पर काबिज होकर आने वाले भविष्य में भी सत्ता से कांग्रेस सहित अन्य दलों को बहुत दूर कर दिया। कांग्रेस के कमजोर होने से राज्य स्तरीय दलों का उदय हुआ। साथ ही पिछले कुछ दशकों से इन क्षेत्रीय दलों ने अवसरवादिता के साथ समय-समय पर एक अप्रत्यक्ष भय दिखाकर मुस्लिमों को अपने पाले में बैठाते रहे।
भारतीय मुसलमानों के मौजूदा दौर का यदि विश्लेषण करें तो इंडिया टूडे के पूर्व प्रबंध संपादक ने एक बार अपने ट्वीटर पर विचार व्यक्त करते हुये मुस्लिमों का वोट किधर जाता है पर लिखा है उत्तर भारत में मुसलमान आम तौर पर उस पार्टी को वोट डालते हैं, जो बीजेपी को हराने के लिए सबसे मजबूत स्थिति में होता है। मुसलमान वोटरों का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जो मुसलमान उम्मीदवार के मुकाबले भी ऐसे उम्मीदवार को चुनना पसंद करता है, जिसे वह सेक्युलर मानता, या जिसे वह बीजेपी को हराने में समर्थ मानता है। यही वजह है कि उत्तर भारत में कोई मुस्लिम पार्टी, जिसकी पहचान सिर्फ मुसलमानों से जुड़ी हो, फल-फूल नहीं पाई। ओवैसी इसके ताजा उदाहरण हैं, जिन्हें छुटपुट सफलताएं ही मिल पाईं।’
मालूम हो कि पिछले दो दशकों में, संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नाममात्र का रह गया है। हालात देखिये वर्ष 2019 के चुनावों के बाद, मुसलमानों के पास केवल 5 प्रतिशत सीटें रह गई थीं। यह आंशिक रूप से भाजपा के जनता द्वारा वृहद् स्तर पर चुने जाने के कारण है, जिसमें 2022 के मध्य तक संसद में पार्टी का कोई मुस्लिम सदस्य नहीं था।
देश के बंटवारे के बाद भारत में रहते हुये भी इस स्थिति में पंहुचने के लिए कहीं न कहीं मुस्लिमों की अति कट्टर होने को भी उत्तरदायी ठहराया जाना न्यायोचित होगा। अब जबकि अतीत से ही मुस्लिम धर्म भी जाति, उपजाति के भेदभाव से परिपूर्ण रहा है। इस धर्म में भी हिंदुओं की ही तरह जाति और वर्ग व्यवस्था है।
भाजपा ने पसमांदा मुस्लिम समाज को ही वोट के लिए क्यों टारगेट किया- वैसे पसमांदा शब्द फारसी से लिया गया है, जिसका अर्थ है सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े लोग। कुल मिलाकर 15 फीसदी उच्च जाति के मुसलमान, वहीं भारत में करीब सर्वाधिक 85 फीसदी पसमांदा हैं। इसमें दलित और बैकवर्ड मुस्लिम, पसमांदा वर्ग में आते हैं। इस पिछड़े वर्ग में कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई चिकवा, कस्साब (कुरैशी), फकीर (अलवी), नाई (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी, गद्दी, लोहार-बढ़ई (सैफी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन-गुज्जर,गुर्जर, बंजारा, मेवाती, गद्दी, मलिक गाढ़े, जाट, अलवी, जैसी जातियां आती हैं जिन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अपना वोट बैंक मजबूत करने पर फोकस कर रही है। ऐसा इसलिए भी है कि यदि आगामी लोकसभा चुनावों में कुछ प्रतिशत पढ़ें लिखे हिंदुओं का वोट भाजपा की नीतियों, मंहगाई आदि मुद्दों को लेकर खिसक गया तो वह इसकी पूर्ति इन अशिक्षित, पिछड़े मुस्लिमों से कर सके।