
समान नागरिक संहिता क्या है जानने से पहले, जानना होगा संविधान के अनुच्छेद 44 और सिविल व आपराधिक कानूनों के बारे में –
सिविल लॉ या नागरिक कानूनों और आपराधिक कानूनों या क्रिमिनल लॉ के बीच अंतर- भारत मे क्रिमिनल लॉ सभी के लिए समान हैं और सभी पर समान रूप से लागू भी होते हैं, चाहे उनका धर्म, जाति,सम्प्रदाय कोई भी हो। चोरी, डकैती, मर्डर, लूट, रेप, देशद्रोह, घोटाला आदि मामलों को आपराधिक कानूनों में रखा गया है।
वहीं सिविल लॉ हमेशा धार्मिक आस्था से प्रभावित होते हैं।दीवानी मामलों में लागू होने वाले व्यक्तिगत कानूनों को हमेशा धार्मिक ग्रंथों के आधार पर संवैधानिक मानदंडों के अनुसार लागू किया गया है। सरल शब्दों में शादी-ब्याह, निकाह, जमीन-जायदाद, बंटवारे आदि के मामले नागरिक कानूनों के तहत ही आते है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार- समस्त राज्य, भारत के सम्पूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे। मालूम हो कि अनुच्छेद-44, संविधान में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में से एक है। इस अनुच्छेद 44 का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में निहित “धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” की अवधारणा को मजबूती प्रदान करना है।
अनुच्छेद 44 क्यों है इतना खास-
“यूसीसी वांछनीय है लेकिन फिलहाल यह स्वैच्छिक रहना चाहिए” – डॉ. बीआर अंबेडकर
भारत के संविधान में दिये गये निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 का उद्देश्य ही कमजोर वर्गों के विरुद्ध भेदभाव को मिटाना और सम्पूर्ण भारत में विविध सांस्कृतिक समूहों के बीच सामंजस्य स्थापित करना था।इस प्रकार संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को भाग IV में अनुच्छेद 44 में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के हिस्से के रूप में जोड़ा गया था। अम्बेडकर ने संविधान सभा में अपने भाषण में कहा था, “किसी को भी आशंकित होने की आवश्यकता नहीं है कि यदि राज्य के पास शक्ति है, तो राज्य तुरंत क्रियान्वित करने के लिए आगे बढ़ेगा …”
भारत के सभी राज्य जब इसे स्वीकार करने के लिए तैयार होगे तब इसको स्वीकार किया जा सकता है।
अब बात समान नागरिक संहिता की-
समान नागरिक संहिता (UCC) भारत के लिए एक ऐसा कानून जो विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि जैसे मामलों में सभी धर्मों और समुदायों पर लागू करने का प्रावधान करती है। यह संहिता संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत आती है, जिसमें कहा गया है कि राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
फ्लैशबैक : समान नागरिक संहिता का संक्षेप में इतिहास-
ब्रिटानिया हूकूमत ने 1835 में अपनी रिपोर्ट को समाने लायी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में समानता की आवश्यकता पर बल दिया गया था, इसमें सिफारिश की गई थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के पर्सनल या व्यक्तिगत कानूनों को बरकरार रखा जाए।
स्वतन्त्रता के वर्ष पहले ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों में वृद्धि ने जहां अंग्रेज़ी सरकार को 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए मजबूर किया। जिसमें हिंदू लॉ कमेटी का कार्य हिंदू कानूनों की आवश्यकता की उपयोगिता की जांच करना था। समिति ने, एक संहिताबद्ध हिंदू कानून की सिफारिश की, जो महिलाओं को समान अधिकार देगा। वहीं इससे पूर्व भी 1937 के अधिनियम की समीक्षा की गई थी और समिति ने हिंदुओं के लिए विवाह और उत्तराधिकार के लिए एक नागरिक संहिता की सिफारिश की। इन्ही सब बातों को देखते हुये ब्रिटिश शासन के अंतिम दशक की शुरुआत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी.एन. राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया।
इन सिफारिशों के तहत ही हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया। हालाँकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे। चर्चा करते है हिन्दुओं और मुस्लिमों के पर्सनल लॉ की-
हिंदू कोड बिल-
वर्ष 1951 में राव समिति की प्रस्तावित रिपोर्ट का मसौदा उस समय बनाई गई बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली एक चयन समिति को प्रस्तुत किया गया था। जिसे चर्चा करने के बाद, इस हिंदू कोड बिल को समाप्त कर दिया गया। बात यहीं पर नही खत्म हुई, इसे 1952 में फिर से प्रस्तुत किया गया। चार वर्ष उपरांत इस बिल को एक नये नाम से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम कहा गया, वर्ष 1956 में अपनाया गया, ताकि हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के बीच निर्वसीयत या अनिच्छुक उत्तराधिकार से संबंधित कानून में संशोधन और संहिताकरण किया जा सके। अधिनियम ने हिंदू व्यक्तिगत कानून में सुधार किया और महिलाओं को अधिक संपत्ति अधिकार और स्वामित्व दिया। इसने महिलाओं को उनके पिता की संपत्ति में संपत्ति का अधिकार दिया। वर्ष 2005 में अधिनियम में किए गए एक संशोधन में अधिक वंशजों को जोड़ा गया और महिलाओं को प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारियों में शामिल किया गया। पुत्री को उतना ही भाग आबंटित किया जाता है जितना पुत्र को आबंटित किया जाता है।
पर्सनल लॉ का क ख ग?
कानून जो नागरिकों के एक निश्चित समूह पर उनके धर्म, जाति, और विश्वास के आधार पर लागू होते हैं, रीति-रिवाजों और धार्मिक ग्रंथों पर उचित विचार के बाद बनाए जाते हैं। हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानून उनके धार्मिक प्राचीन ग्रंथों में अपना स्रोत और अधिकार पाते हैं।
जहां हिंदू धर्म में, व्यक्तिगत कानून विरासत,उत्तराधिकार, विवाह, गोद लेने, सह-पालन, अपने पिता के ऋण का भुगतान करने के लिए पुत्रों के दायित्वों, परिवार की संपत्ति के विभाजन, रखरखाव, संरक्षकता और धर्मार्थ दान से संबंधित कानूनी मुद्दों पर लागू होते हैं।
वहीं मुस्लिम धर्म में, व्यक्तिगत कानून विरासत, वसीयत, उत्तराधिकार, निकाह, वक्फ, दहेज, संरक्षकता, तलाक, उपहार और कुरान से संबंधित मामलों पर लागू होते हैं।
फिर समान नागरिक संहिता के क्या हैं मायने?
इसका उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित अंबेडकर द्वारा परिकल्पित कमजोर वर्गों को सुरक्षा प्रदान करना है, साथ ही नागरिको में एकता के माध्यम से राष्ट्रवादी उन्माद की बढ़ोत्तरी करना है। अधिनियमित होने पर कोड हिंदू कोड बिल, शरीयत कानून और अन्य जैसे धार्मिक विश्वासों के आधार पर वर्तमान में अलग-अलग कानूनों को सरल बनाने के लिए काम करेगा या फिर इन कानून का आस्तित्व ही समाप्त कर देगा।इसके तहत विवाह समारोहों, विरासत, उत्तराधिकार, गोद लेने के लिए बनाये गये दत्तक अधिनियम जैसे जटिल कानूनों को सरल करेगा और उन्हें सभी के लिए एक कानून का श्रृजन कर एक ही नागरिक कानून का पालन करना सभी नागरिकों के लिए आवश्यक बनायेगा। तब यह कानून सभी नागरिकों पर लागू होगा चाहे वह किसी भी धर्म या सम्प्रदाय से हों।





