डॉ. रिंकी कुमारी, (सहायक परध्यापक, हिंदी विभाग)
ओड़ीशा राज्य मुक्त विश्वविद्यालय, संबलपुर
r.kumari@osou.ac.in
भारत एक अत्यंत बहुभाषीय देश है, जहाँ लगभग 22 भाषाएँ और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं। भारत की भाषाई विविधता उसकी सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा है। इनमें से कई भाषाएँ जनजातीय समुदायों द्वारा बोली जाती हैं, जो भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता को और समृद्ध बनाती हैं। जनजातीय भाषाएँ न केवल संवाद का माध्यम होती हैं, बल्कि वे उनके इतिहास, परंपरा, ज्ञान, रीति-रिवाज और पहचान का जीवंत दस्तावेज भी होती हैं। उड़ीसा राज्य भी अपनी जनजातीय आबादी और भाषाई विविधता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के आदिवासी समूहों की अपनी विशिष्ट भाषाएँ और बोलियाँ हैं, जो उनकी सामाजिक पहचान को परिभाषित करती हैं। इनमें से कई भाषाएँ मात्र मौखिक रूप में मौजूद हैं और उनके पास लिखित रूप नहीं है। वर्तमान समय में वैश्वीकरण, शहरीकरण और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रभाव से ये भाषाएँ विलुप्त होने के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। भाषा का संरक्षण केवल एक भाषाई मुद्दा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण का भी सवाल है। जब कोई भाषा समाप्त होती है, तो उससे जुड़ी सांस्कृतिक धरोहर, परंपराएं, लोककथाएँ, ज्ञान और इतिहास भी खो जाता है। इस शोध में उड़ीसा की जनजातीय भाषाओं की स्थिति, उनकी विलुप्ति के कारणों और संरक्षण के उपायों का विवेचन किया जाएगा।
उड़ीसा की जनजातीय भाषाओं का परिचय-उड़ीसा देश के पूर्वी हिस्से में स्थित है, जो अपनी विविध जनजातीय आबादी के लिए जाना जाता है। यहाँ लगभग 62 या इससे अधिक जनजातियाँ निवास करती हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग भाषाएँ और बोलियाँ हैं। प्रमुख जनजातीय भाषाओं में संथाली, मुण्डारी, हो, कुंडु, गोंडी, खड़िया और कोण्डा आदि शामिल हैं। भाषाओं का सामाजिक और भौगोलिक वितरण इस प्रकार है। ‘संथाली’ भाषा संथाल जनजाति की मुख्य भाषा है और यह उड़ीसा के अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल, और बिहार के कुछ हिस्सों में भी बोली जाती है। संथाली भाषा का एक समृद्ध साहित्य और लिखित स्वरूप है, जो इसे संरक्षण की दृष्टि से अपेक्षाकृत सुरक्षित बनाता है। ‘मुण्डारी’ भाषा मुण्डा जनजाति की मातृभाषा है। यह भाषा अधिकतर उड़ीसा के उत्तरी भागों में बोली जाती है। मुण्डारी भाषा का अभी तक पूर्ण रूप से विकसित लिखित साहित्य नहीं है, जिससे इसके संरक्षण में कठिनाई आती है। ‘हो’ भाषा हो जनजाति की भाषा, जो उड़ीसा और झारखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रचलित है। इस भाषा का भी संरक्षण के लिए काफी प्रयास किए जा र है। कुंडु, खड़िया, कोण्डा आदि ये अन्य जनजातीय भाषाएँ हैं जो मुख्यतः उड़ीसा के पहाड़ी और दूरदराज़ के क्षेत्रों में बोली जाती हैं। ये भाषाएँ अधिकतर मौखिक हैं और इनका साहित्यिक विकास कम हुआ है।
भाषायी वर्गीकरण
उड़ीसा की अधिकतर जनजातीय भाषाएँ मुण्डा-खास परिवार से संबंधित हैं, जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार की एक शाखा है। इन भाषाओं का अध्ययन और वर्गीकरण जटिल है, क्योंकि इनमें कई स्थानीय बोलियाँ हैं जिनका अलग-अलग स्तर पर साहित्य और व्याकरण मौजूद है। वर्तमान में वैश्वीकरण की दुनिया में जनजातीय भाषाएँ कई गंभीर खतरे झेल रही हैं। उड़ीसा की जनजातीय भाषाएँ भी इसी संकट की स्थिति में हैं। इन भाषाओं का विलुप्त होना केवल भाषाई नुकसान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर की क्षति का संकेत है। विलुप्ति के प्रमुख कारण मुख्यधारा की भाषाओं का दबाव है,जो हिंदी, ओड़िया और अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं का बढ़ता प्रभाव जनजातीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। शिक्षा, रोजगार, प्रशासन और मीडिया में इन भाषाओं का प्रभुत्व जनजातीय भाषाओं के प्रयोग को सीमित कर देता है। इसका दूसरा कारण शहरीकरण और आधुनिक जीवनशैली का भी प्रभाव पड़ रहा है। ग्रामीण और आदिवासी समुदायों का शहरों में पलायन होने से उनकी भाषाओं का दैनिक जीवन में प्रयोग कम होता जा रहा है। युवा पीढ़ी मुख्यधारा की भाषाओं को प्राथमिकता देती है, जिससे उनकी मातृभाषा परंपरा कमजोर पड़ती है। इसमें शिक्षा प्रणाली का भी योगदान देखा जा सकता है। सरकारी और निजी विद्यालयों में जनजातीय भाषाओं को स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण बच्चों को अपनी मातृभाषा छोड़कर दूसरी भाषा सीखनी पड़ती है। इससे मातृभाषा का संचार धीरे-धीरे कम हो जाता है। इसका कारण है लिखित साहित्य और संसाधनों का अभाव कई जनजातीय भाषाओं का कोई स्थापित लिपि या लिखित साहित्य नहीं है। इससे भाषा का संरक्षण और प्रचार-प्रसार कठिन होता है।
इस प्रकार सामाजिक असमानता और बहिष्कार कर कभी-कभी जनजातीय समुदायों की भाषाओं को निचली दर्जा दिया जाता है, जिससे बोलने वाले अपनी भाषा से शर्मिंदगी महसूस करने लगते हैं और भाषाई बदलाव को अपनाते हैं, तथा आर्थिक कारण रोजगार के लिए बेहतर अवसर प्राप्त करने हेतु युवा अपनी भाषा छोड़ कर मुख्यधारा की भाषाओं को अपनाते हैं, जिससे जनजातीय भाषाएँ धुंधली होती चली जाती हैं। इन खतरों के बीच कई सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास जनजातीय भाषाओं के संरक्षण के लिए कार्य कर रही है। लेकिन अभी भी संरक्षण के क्षेत्र में कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। संरक्षण के प्रयास में विभिन्न सरकारी संस्थाएं केंद्र और राज्य सरकारें विभिन्न जनजातीय भाषाओं के दस्तावेजीकरण का कार्य कर रही हैं। कई भाषाओं के व्याकरण, शब्दकोश और पाठ्य सामग्री तैयार की जा रही है। केंद्र सरकार द्वारा ‘राष्टीय शिक्षा नीति 2020’ के अंतर्गत कुछ क्षेत्रों में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाई का मौका मिले। इससे संस्कृति संरक्षण योजना के तहत जनजातीय त्योहारों, संगीत, नृत्य और साहित्य के संरक्षण के लिए योजनाएँ चलाई जा रही हैं।
गैर-सरकारी प्रयास
स्थानीय संस्थान कई सामाजिक संगठन जनजातीय भाषाओं को संरक्षित करने के लिए कार्यरत हैं। ये संगठन भाषा सीखने के कार्यक्रम, कार्यशालाएँ और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं। कुछ संस्थान डिजिटल माध्यम जैसे-मोबाइल ऐप, वेबसाइट, यूट्यूब चैनल के जरिए भाषाओं को रिकॉर्ड कर रहे हैं और जागरूकता बढ़ा रहे हैं। लेकिन संसाधनों की कमी या पर्याप्त आर्थिक और मानव संसाधन नहीं होने के कारण संरक्षण का कार्य सीमित रहता है। इसका कारण यह भी माना जाता है कि जनजातीय समुदायों के बीच भी भाषा संरक्षण के महत्व के प्रति जागरूकता कम है। इसका कारण इनमें तकनीकी सक्षमता का अभाव भी हो सकता है। डिजिटल उपकरणों का सीमित उपयोग संरक्षण में बाधक है।
संरक्षण के लिए आवश्यक उपाय
जनजातीय भाषाओं को सुरक्षित रखने और पुनर्जीवित करने के लिए बहुआयामी प्रयास आवश्यक हैं। केवल सरकारी नीतियाँ ही नहीं, बल्कि स्थानीय समुदायों, शिक्षाविदों, समाजसेवियों और तकनीकी विशेषज्ञों का भी सहयोग जरूरी है।जैसे शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाना चाहिए। शोध में यह बताया गया है कि मातृभाषा में पढ़ाई से बच्चों की सीखने की क्षमता बेहतर होती है। इसलिए स्थानीय भाषाओं के लिए पाठ्यपुस्तकें, शिक्षण सामग्री और शिक्षकों का विकास किया जाना चाहिए। तथा स्कूल स्तर पर जनजातीय भाषाओं के लिए अतिरिक्त पाठ्यक्रम या भाषा पाठ्यक्रम उपलब्ध कराना चाहिए। भाषा का दस्तावेजीकरण और डिजिटलाइजेशन का तात्पर्य उस भाषा की मौखिक और लिखित अभिव्यक्तियों, व्याकरण, शब्दावली, लोककथाओं, गीतों, कहानियों और अन्य सांस्कृतिक सामग्री का संग्रह, व्यवस्थित करना और सुरक्षित करना है। यह प्रक्रिया भाषा के संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, खासकर उन भाषाओं के लिए जो विलुप्ति के कगार पर हों। डिजिटलाइजेशन का मतलब है इन दस्तावेजीकृत भाषाई सामग्रियों को डिजिटल रूप में संग्रहित करना जैसे ऑडियो, वीडियो, टेक्स्ट फाइलें, शब्दकोश, व्याकरण पुस्तकें आदि। ताकि उन्हें तकनीकी माध्यमों से संरक्षित किया जा सके, आसानी से उपलब्ध कराया जा सके, और भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सके।
दस्तावेजीकरण की विधियाँ और महत्व
भाषा के ज्ञान का संरक्षण-: मौखिक परंपराओं और कहानियों का रिकॉर्डिंग कर उन्हें सहेजा जा सकता है।
भाषा सीखने में सहायक-: डिजिटल संसाधन जैसे ऐप, वेबसाइट, ऑडियो-वीडियो सामग्री भाषा सीखने में मददगार होते हैं।
शोध के लिए उपयोगी-: भाषाविदों, समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों के लिए प्राथमिक स्रोत उपलब्ध होते हैं।
समाज में जागरूकता-: डिजिटल मीडिया से भाषा के प्रति लोगों की रुचि और सम्मान बढ़ता है।
मौखिक रिकॉर्डिंग-: बुजुर्गों और भाषा विशेषज्ञों से भाषाई अभिव्यक्तियाँ, गीत, कहानियाँ, परंपराएं रिकॉर्ड करना।
लिखित सामग्री संकलन-: भाषा में मौजूद किसी भी प्रकार के लिखित दस्तावेज, पुस्तकों, लोक साहित्य का संग्रह करना।
व्याकरण और शब्दकोश निर्माण-: भाषा के नियमों का विश्लेषण कर व्याकरण पुस्तकें और शब्दकोश बनाना।
सर्वेक्षण और शोध: भाषा के प्रयोग, स्थान, बोलियों का सर्वेक्षण करना।
ऑनलाइन डेटाबेस – भाषा के सभी संसाधनों को डिजिटल फॉर्मेट में संग्रहित कर इंटरनेट पर उपलब्ध कराना।
मोबाइल ऐप: भाषा सीखने, बोलने, और लिखने के लिए इंटरैक्टिव ऐप विकसित करना।
वीडियो-ऑडियो सामग्री: लोक गीतों, कहानियों, संवादों को रिकॉर्ड कर यूट्यूब या अन्य प्लेटफॉर्म पर अपलोड करना।
सॉफ्टवेयर टूल्स का उपयोग: भाषाई डेटा के विश्लेषण और संरक्षण के लिए विशेष सॉफ्टवेयर का उपयोग करना।
निष्कर्ष- उड़ीसा की जनजातीय भाषाएँ न केवल क्षेत्रीय सांस्कृतिक विविधता की पहचान हैं, बल्कि वे मानव सभ्यता की अनमोल धरोहर भी हैं। इन भाषाओं के संरक्षण का मुद्दा केवल भाषाई संरक्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के संरक्षण का भी सवाल है। वर्तमान में, शहरीकरण, शिक्षा में मुख्यधारा की भाषाओं का दबाव, आर्थिक कारण और तकनीकी विकास ने इन भाषाओं को विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है। परंतु संरक्षण के लिए उपयुक्त नीतियाँ, शिक्षा में मातृभाषा को प्राथमिकता, स्थानीय समुदायों की भागीदारी, और डिजिटल माध्यमों का उपयोग एक प्रभावी समाधान हो सकता है। उड़ीसा में मुण्डारी और संथाली जैसी भाषाओं के संरक्षण प्रयास उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि समुचित योजना और सहयोग से भाषा संरक्षण संभव है। इसलिए आवश्यक है कि सरकार, शैक्षिक संस्थान, समाज और स्थानीय समुदाय मिलकर समन्वित प्रयास करें ताकि ये भाषाएँ जीवित रह सकें और आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रख सकें। अंततः, जनजातीय भाषाओं का संरक्षण भारत की बहुलतावादी विरासत के संरक्षण के समानांतर है, जो सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए अनिवार्य है।
संदर्भ एवं ग्रन्थसूची
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जोगी, एम., भारत की जनजातीय भाषाएँ, प्रकाशन वर्ष: 2018।
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मिश्रा, एस., “मुण्डारी भाषा: संरक्षा और विकास”, अर्वाचीन भाषा अध्ययन, 2019।
चंद्र, वी., “संथाली भाषा और साहित्य”, लोक साहित्य समीक्षा, 2020।
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