डॉ लुबना कमाल, लखनऊ
लखनऊ: क्रॉनिक रीनल फेल्योर दुनिया भर में महामारी का रूप ले चुका है। भारत में इसका प्रमुख कारण अनियंत्रित ब्लड प्रेशर / रक्तचाप या मधुमेह है।
तीसरा सबसे बड़ा कारण दर्द निवारक और OTC (ओवर द काउंटर या बिना डॉक्टर की सलाह के लेनी वाली) दवाओं के अंधाधुंध उपयोग है।
मांग करी हर सरकारी मेडिकल कॉलेज में स्क्रीनिंग
लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इस बीमारी को काफी हद तक रोका जा सकता है। रक्तचाप और रक्त शर्करा की जांच करके गुर्दे की विफलता के कम से कम 70% मामलों को टाला जा सकता है।
उपरोक्त दो मापदंडों पर नजर रखने की लागत बेहद मामूली है।
जिन लोगों में गुर्दा खराब होने की संभावना ज्यादा है, उनका सीरम क्रिएटिनिन और यूरिनरी एल्बुमिन की जांच की जा सकती है, जिसकी कुल लागत लगभग 100 रुपये है, साल में 1 या 2 बार कराए जाने से, इस रोग के अत्यधिक मामलों को पहले से पहचाना और रोका जा सकता है।
इन कम लागत वाले परीक्षणों का लंबे समय में बहुत अधिक आर्थिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि गुर्दे की विफलता से पीड़ित रोगी के लिए एकमात्र विकल्प डायलिसिस और प्रत्यारोपण है, जो बहुत अधिक खर्च होता है। बहुत सारे रोगियों की डायलिसिस करने में सरकार आर्थिक रूप से मदद कर रही है। पर जब ऐसे लोगों में रोग का पता पहले से चल जायेगा, तो डायलिसिस की जरूरत ना पड़ने की वजह से, सरकारी कोष का बहुत पैसा बचाया जा सकेगा जो की सेहत से जुड़े और जरूरी मुद्दों में इस्तेमाल हो सकेगा।
उपरोक्त चार परीक्षणों ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर, सीरम क्रिएटिनिन और पिशाब में प्रोटीन की जांच से गुर्दे की क्षति और रीनल फेल्योर को रोका जा सकता है।
एक बार रोग शुरू हो जाने के बाद भी आहार प्रबंधन और होम्योपैथिक दवाओं के माध्यम से इसे नियंत्रित किया जा सकता है।
इसलिए डॉ. लुबना कमल का कहना है कि आयुष सहित सभी सरकारी मेडिकल कॉलेजों और डिस्पेंसरियों में इस स्क्रीनिंग की व्यवस्था की जाए, ताकि इस महामारी पर काबू पाया जा सके और लाखों लोगों को बचाया जा सके।